" मन की स्थिति"
आज हमारा जीवन किस पर निर्भर है- परिस्थिति पर। परिस्थिति में भी लोगों पर, लोगों के मूड पर, लोगों के स्वभाव पर निर्भर है। मेरे मन का दायरा(स्टेट ऑफ़ माइंड) लोगों के स्वभाव पर निर्भर है तो मैं कैसे खुश रह पाऊँगी। जैसे मेरा शारीरिक स्वास्थ्य यदि बाहर के मौसम, बाहर के इन्फेक्शन, बाहर के बैक्टीरिया पर निर्भर है,तो मैं कैसे स्वस्थ रह सकती हूँ? जब मेरे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता ख़त्म हो जाती है तब मुझे सारे इन्फेक्शन हो जाते हैं, बैक्टीरिया अटैक करता है, सारे वायरस आ जाते हैं। लेकिन अगर मैं अपने शरीर का ध्यान रखती हूँ, प्रतिरक्षा-तंत्र को सशक्त रखती हूँ तो वो मुझ पर आक्रमण नहीं कर पाते हैं। जैसे ही मेरा प्रतिरक्षा-तंत्र खत्म हुआ तो छोटे-छोटे वायरस भी, थोड़ा सा मौसम बदलते ही मेरे ऊपर आक्रमण कर देते हैं। बाहर का मौसम ही ठीक नहीं है, सर्दी इतनी हो गई है, बीमार तो पड़ना ही है, तो यह मेरी सोच है। हम बीमार रहना चाहते हैं या स्वस्थ रहना चाहते हैं, दोनों ही विकल्प हमारे पास हैं।
परिस्थिति मेरी ख़ुशी पर कुठाराघात न करे। जैसे हम अपने शरीर का ध्यान रखते हैं वैसे ही हमें अपने मन का भी ध्यान रखना है। यह उस समय नहीं होगा, जब परिस्थितियां आएंगी। हम अपने शरीर के अंदर ताकत तब नहीं भरते जब मौसम बदलता है। हम हर दिन अपने शरीर का ध्यान रखते हैं। फिर बाहर चाहे कितना भी परिवर्तन आये, बाहर का परिवर्तन अंदर प्रभावित नहीं कर सकता। शरीर के अंदर क्षमता है कि वो बाहर के परिवर्तन के साथ तालमेल(एडजस्ट) करके अपना संतुलन बना लेता है। अगर बाहर से इन्फेक्शन हो रहा है तो शरीर के अंदर का प्रतिरोधी-तंत्र उसे खत्म कर देता है और हमें इसका पता भी नहीं चलता, हम अपना काम सामान्य(नार्मल) रूप से करते रहते हैं।
इसी तरह अगर मन का भी ध्यान रखेंगे, इसकी हर रोज़ सफाई करेंगे, पोषण देंगे, व्यायाम करेंगे, तो जो कुछ बाहर होता जाएगा, वो चला जाएगा, हमें पता भी नहीं चलेगा। बाहर की बातों में कोई शक्ति नहीं है जो हमारी ख़ुशी को प्रभावित कर सके।
कोई बहुत कुछ बुरा-भला भी कह देगा, कोई नाराज़ हो जाएगा, बच्चे हमसे संतुष्ट रहेंगे, बॉस गुस्सा हो जाएगा, ये सब बैक्टीरिया ही तो हैं जो बाहर से आते हैं, ये परिवर्तन ही तो है जो सारा बाहर से आ रहा है। कई कहते हैं, पानी की बारिश और व्यवहार की जो बारिश है उसमे बहुत फर्क है क्योंकि मौसम की बारिश के लिए तो मैं छाता ले कर जा सकती हूँ या मैं रेनकोट पहन सकती हूँ।
हमें भावनात्मक रक्षा(इमोशनल प्रोटेक्शन) की अपेक्षा शारीरिक सुरक्षा करना बहुत आसान लगता है। जब हम अपनी भावनात्मक रक्षा करना शुरू कर देंगे तब यह भी आसान लगनी शुरू हो जाएगी। फिर यदि कोई कुछ भी बोल दे तो इसका प्रभाव हमारे ऊपर नहीं पड़ेगा। मान लीजिये, किसी ने अच्छे से बात नहीं की, अपमानित किया तो क्या दुःख नहीं होगा? ऐसी परिस्थिति में अपने से पूछें, क्या मैं इतनी कमज़ोर हूँ कि हर एक के व्यवहार को अपने ऊपर हावी दूँ? अगर हम अपना कंट्रोल सारा बाहर देंगे, तो हम अपसेट हो जाएंगे क्योंकि बाहर चुनौतियाँ बहुत हैं। मौसम को देखो, हमें पता है कि अभी गर्मी है, फिर जाड़ा आएगा, तो हम सहज ही प्रबंध कर लेते हैं। लेकिन जिस दिन मौसम अचानक ही बदल जाये, अभी-अभी गर्मी, आधे घंटे में बारिश, उसके आधे घंटे में फिर बहुत ठण्ड हो जाये, तो क्या इतनी जल्दी हम प्रबंध कर पाएंगे? इस तरह के मौसम का सामना करने के लिए हम तैयार नहीं होते हैं। इसी प्रकार से हम लोगों के गलत व्यवहार का सामना करने के लिए एकदम से तैयार नहीं होते हैं। इस कारण से यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम पहले से ही अपना ध्यान रखें, उसके बाद दूसरों का क्योंकि दिन-प्रतिदिन हरेक के जीवन में चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं।
हमारी जो सूची है उसमें 'ये करना है, ये करना है', ये सब बातें तो होती हैं लेकिन ख़ुशी के लिए क्या करना है, यह हमारी प्राथमिकता की सूची में कहीं भी दिखाई नहीं देता है। हम सब चीज़ों पर ध्यान देते-देते अपनी ख़ुशी को ही भूल जाते हैं। फिर हम यह भी कहते है कि मैं खुश नहीं हूँ, कोई बात नहीं, मुझे अपना काम करने दो। यहां हमें यह समझना पड़ेगा कि जब पहले मैं खुद खुश रहूंगी तभी तो मैं दूसरों को ख़ुशी दे सकती हूँ।
जिन्होंने अपनी ख़ुशी को प्राप्ति के ऊपर निर्भर कर दिया तो वो भी खुश नहीं होते, सिर्फ राहत महसूस करते हैं और वो भी कितनी देर के लिए? बस थोड़ी देर के लिए। ऐसे लोगों के जीवन में प्राप्ति बहुत सारी आ जाती है क्योंकि जीवन में उनका एक ही उदेश्य होता है कि हमें कुछ प्राप्त करना है। उन्हें स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या उन्हें ख़ुशी मिली? क्योंकि प्राप्ति की जो पूरी यात्रा होती है वह एक प्राप्ति से पूरी होकर दूसरी प्राप्ति की ओर बढ़ जाती है और यह चक्र हमेशा चलता ही रहता है। ख़ुशी की मंज़िल नहीं मिलती।
उनकी ख़ुशी उस प्राप्ति के ऊपर निर्भर हो जाती है क्योंकि वो एक संस्कार बन जाता है और उस प्राप्ति को पाने के लिए वो कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं। दूसरी बात,जो हम बहुत साधारण चीज़ करते हैं कि हम भविष्य में ख़ुशी ढूंढते है। ये होगा तो मुझे ख़ुशी मिलेगी, यह तो इच्छा हुई। मैं लोगों से प्यार पाने की भी इच्छा रखती हूँ। मैं ज्यादा समय पाने के लिए इच्छा रखती हूँ कि मुझे और समय मिल जाये ना तो मैं बहुत कुछ कर सकती हूँ, मुझे तो 24 घंटे भी कम पड़ते हैं। ये जो इच्छाओं की सूची है वह बहुत लम्बी होती जाती है और कई बार हम कहते हैं कि हमारी इच्छा पूरी ही नहीं होती है। हमारी जितनी इच्छाएं पूरी होती हैं, उतनी ही उनकी सूची और लम्बी हो जाती है क्योंकि इन इच्छाओं के पीछे जो सूक्ष्म विचार होते हैं वो ये हैं कि जब ये सब इच्छाएं पूरी हो जाएंगी तो मैं पूर्ण रूप से सुरक्षित व् खुश महसूस करूंगी।
हम इतनी चीज़ों से बंधे हुए हैं कि यह सब होगा तो मैं अच्छा महसूस करूंगी और ये सब कुछ मेरे अनुसार होना चाहिए। अभी भी साधनों के ऊपर जो निर्भर है, वो हमेशा ही निर्भर रहेगा।
जब हम कहते हैं 'संकल्प हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं' तो हमें ये समझना पड़ेगा कि जो सोच मैं निर्मित कर रही हूँ वो अभी भी मेरा भाग्य बना रही है। उसी प्रकार से अभी जो मेरे साथ हो रहा है, वह अतीत में निर्मित किये गए हमारे विचारों के कारण ही हो रहा है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो सकता है कि अभी आप अपना ध्यान रखते जाएं। हर क्षण को पहले वाले क्षण से अच्छा बिताते जाएँ। आप देखेंगे कि जैसे-जैसे एक-एक पल अच्छा तो अगला पल स्वतः ही अच्छा बीतेगा। ये करने से आपके अंदर इतनी ताकत, इतनी शक्ति जमा हो जाती है कि अगर कोई परिस्थिति आपके पक्ष में नहीं भी होगी तो भी आपके अंदर इतनी क्षमता आ जाएगी कि आप उस परिस्थिति का सामना बहुत ही आसानी से कर सकते हैं। अगर आपने अपना समय भय में या पूर्वानुमान में बिता दिया तो आप इतने कमज़ोर हो जाएंगे कि साधारण-सी परिस्थिति का भी सामना नहीं कर पाएंगे।
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