प्रतिशोध नहीं , परोपकार!
मानव जीवन हीरे तुल्य है, यह हम सदियों से सुनते आये हैं।आज का संसार मनुष्यों से भरपूर है। चारों तरफ इंसान हैं परन्तु जीवन में हीरे जैसी चकाचौंध नहीं है। मनुष्य जीवन को उच्च बनाने वाली उच्च भावनाओं के स्थान पर और-और प्रकार की तुच्छ भावनाएं आ गयी हैं जिसके कारण अपने हाथों, अपने जीवन को उसने नारकीय बनाया है। इस प्रकार की भावनाओं में अत्यंत विध्वंसकारी भावना है बदले की भावना, ईंट का जवाब पत्थर से देने की भावना, दूसरे को गलत सिद्ध करने के लिए कुछ अमर्यादित कर दिखाने की भावना। यह भावना पानी की उछाल की तरह छोटी-छोटी बातों में बड़ी सहज रीति से मानव में उभर कर आ रही है। धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते यह उछाल बाढ़ का रूप धारण कर विनाशकारी बन जाती है। मनुष्य की श्रेष्ठ वृत्तियाँ बदले की भावना में जलती जाती है। चेतना काली पड़ जाती है। कल्याणकारी शक्ति का प्रवाह अकल्याण की ओर हो जाता है।
लक्ष्य में मन एकाग्र करें
बदले का भाव लक्ष्यविहीनता की निशानी है। जैसे रास्ते में पड़े पत्थर को कोई कहे, तुम हटो तो मैं चलूँगा या तुम मेरे रास्ते में आये हो, इसके बदले में मैं तुम्हे उखाड़ फेकूंगा। परन्तु पथिक का रास्ता लम्बा होता है, उसे सोचना चाहिए कि ऐसे तो अनेकों परिस्थितियों रुपी पत्थर रास्ते में आएंगे, किस-किस से वह जूझता रहेगा। इससे तो वह लक्ष्यविहीन हो जाएगा। निश्चित लक्ष्य को लेकर अनवरत गति से बहती नदी की धारा को हम देखें। उसके हृदय में समुद्र के साथ एकाकार हो जाने की तड़प हो जाती है। उसकी तेज़ धार के आगे पत्थर, पहाड़, झाड़, झंखाड़ कुछ भी आएं, उनसे टक्कर नहीं लेती हैं वरन अपनी राहों को मोड़ लेती है। जो साथ चलने को तैयार है उसको सीने से लगाकर बहा ले जाती है, जो उसे रोकना चाहते हैं, बड़ी श्रद्धा से उनके पाद प्रक्षालन करके सावधानी से पल्लू छुड़ाकर भाग लेती है। क्योंकि उसके सामने केवल एक ही लक्ष्य है और वह है सागर से मिलना। हम आत्माओं का कोई न कोई लक्ष्य तो हरेक का होता ही है, उस लक्ष्य में मन को एकाग्र करें तो बदले का भाव पैदा नहीं होगा। सबसे बड़ा लक्ष्य तो है संकल्पों की डोरी से प्रभु की समीपता पाना। उन संकल्पों को किसी से बदला लेने में लगा दिया तो प्रभु पिता बहुत दूर रह जाएंगे।झुकना ही महानता है
स्व-परिवर्तन सामर्थ्य की, समझ की, रॉयलिटी की निशानी है। कोई दो बच्चे यदि आपस में लड़ पड़ें तो समर्थ और रॉयल माँ-बाप अपने निरपराध बच्चे को ही चुप रहना और माफ़ करने को कहेंगे। इसी प्रकार, मन रुपी बच्चा जब किसी से उलझता है तो इसे(अपने मन को), न की दूसरे को बदलने का संकल्प करें। यही समर्थ और सहनशील महान आत्मा की निशानी है। कई बार मनुष्य देहभान के कारण यह संकल्प करता है कि मैं क्यों बदलूँ? इससे तो मुझे कमज़ोर समझा जाएगा। परन्तु कर्मगति हमें सिखाती है कि झुकना ही महानता है, उसी में दोनों का कल्याण है।पंगु हो जाता है विवेक
बदला लेना संकुचित दृष्टिकोण और ज़िद्द की निशानी है। बदला लेने वाले का दायरा भरे-पूरे संसार में इतना सिमट जाता है कि वह दिन-रात केवल और केवल एक ही व्यक्ति के बारे में सोचता है। उस एक के चिंतन में किसी अन्य से लेन-देन और प्रेम का व्यवहार आदि सब उपेक्षित कर देता है। बदले की भावना मनुष्य के विवेक को पुंग बनाती है। उसकी सोचने, समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। बदला, बदला...... सोचते-सोचते शक्तियां,सारी वृत्तियाँ, इसी एक बात पर एकत्रित हो जाती हैं। सुप्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर की एक रिवेंज ट्रेजेडी 'हेमलेट' इस बात का सशक्त उदाहरण है। नाटक के मुख्य पात्र हेमलेट के पिता की हत्या षड्यंत्र द्वारा कर दी जाती है। इसका उसको गहरा सदमा पहुँचता है। वह पिता की हत्या का बदला लेने के लिए रात-दिन बदले की आग में जलता है, पागलों की तरह घूमता है। वह हत्यारे को मारना चाहता है परन्तु अंतिम क्षण आते-आते उसकी सोचने की शक्ति इस कदर नष्ट हो चुकी होती है कि हत्यारे को मारने के साथ-साथ वह स्वयं भी मृत्यु का शिकार हो जाता है।बदला अर्थात बुराई की मांग
बदला लेना मनुष्य की मूलभूत वृत्ति के विरुद्ध है। बदले के भाव में मनुष्य में सर्व प्रथम उतावलापन आता है कि यह कार्य अभी ही हो जाये, इसी घडी हो जाये। वह संसार की सारी चीज़ों से जैसे विद्रोही भाव से लड़ने को तैयार हो जाता है। वह जड़-चेतन, धरती-आकाश सभी को अपने इशारों पर चलाना चाहता है परन्तु यह तो व्यर्थ-सा विचार है। जब वह स्वयं ही अपने अनुसार नहीं चल रहा है तो बाकी चीज़ें उसके अनुसार क्यों चलेंगी? बदला शब्द में दो शब्द है बद+ला। बद का अर्थ है बुरा, ला माना ले आओ। जब किसी से बदला लेना चाहिए कि मैं बुराई मांग रहा हूँ। यह तो नासमझी कहलाएगी।स्वपरिवर्तन महानता है
परिवर्तन जीवन है। परिवर्तन चेतनता की निशानी है। परिवर्तन संसार का सौंदर्य है, आवश्यकता है, संसार का नियम है। संसार परिवर्तन की पूजा करता है। जो नहीं बदलता उसे जड़ समझ कर फेंक दिया जाता है। पौधे का निरंतर परिवर्तन उसे फूल-फलों से भरा-पूरा बना देता है। उसे देख-देख कर सभी खुश होते हैं। उसका सामीप्य सभी को प्यारा लगता है। सूखा पेड़ सभी की वितृष्णा का शिकार बनता है। हमारा आज तक का जीवन निरंतर परिवर्तन का परिणाम है। निरंतर विरोधी परिस्थितियों में से गुजरते हुए भी यह अपने अस्तित्व को बनाये रखने में कामयाब है। फिर हम बदलने से क्यों डरते हैं? जबकि पता है कि परिवर्तन का परिणाम सुखदायी है, तो उससे डर क्यों? स्वपरिवर्तन महानता है इसलिए बदला लेने के बजाय स्वपरिवर्तन के रास्ते को अख्तियार करें।बदले का अंतहीन कुचक्र
बदला लेने से बात समाप्त नहीं हो जाती वरन बात की शुरुआत तभी होती है जब बदले की भावना का संकल्प पैदा होता है। संकल्पों की एक बड़ी सूक्ष्म मशीनरी है। जैसे रोगाणु फैलते हैं वैसे ही व्यर्थसंकल्पों और दुर्भावनाओं रुपी रोगाणु भी फैलते हैं। जिसके प्रति जो भाव इधर होता है, वही उधर भी होता है। कहा जाता है, किसी के बारे में यह जानना हो कि वह हमारे बारे में क्या सोचता है तो सर्वप्रथम हम अपने को देखें कि हम उसके बारे में क्या सोचते हैं। जब इधर दूसरे को हानि पहुंचाने का संकल्प चल रहा होगा तो उधर भी नुकसान के लिए योजना बन रही होगी। उधर की विध्वंसक घटना को रोकने के लिए हमें अपने मन में चल रही विनाशकारी योजना को रोकना होगा। नहीं तो हम किसी को एक हानि पहुंचाएंगे, दूसरा बदले में दो पहुंचाएगा। इस प्रकार,यह अंतहीन कुचक्र चलता रहेगा और एक-एक करके सारी उज्जवल भावनाएं, रिश्तों की मिठास, जीवन का रस इस कुचक्र में समाप्त हो जाएगा।ॐ शांति।
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