पाप कर्मों के दुखों से कैसे बचें?
यह तो सर्वविदित है कि भूतकाल में किये गए पाप कर्मों की सज़ा मनुष्यात्मा, मन व शरीर दोनों के मध्याम से भोगती है। यहां प्रश्न यह की क्या ऐसे कर्म हो सकते है, जो भूतकाल में किये गए पाप कर्मों की सज़ा नष्ट कर सकें? कर्म का नियम अटल है। कर्म सुखोत्पादक और दुःखोत्पादक दोनों प्रकार के हो सकते है।
श्रेष्ठ कर्मों में वृद्धि
प्रत्येक श्रेष्ठ कर्म वर्तमान तथा भविष्य,दोनों कालों में ख़ुशी प्रदान करता है। इसलिए श्रेष्ठ कर्म करते-करते हम अपनी खुशियों को इतना बढ़ा सकते हैं कि भूतकाल के पाप कर्मों की सज़ा की महसूसता को नष्ट किया जा सके। महात्मा बुद्ध ने भी कहा है कि हमारा वर्तमान, भूतकाल के किये गए अच्छे व बुरे कर्मों का का विशुद्ध परिणाम है। यदि हम निरंतर हर रोज़ ब्रह्ममुहूर्त स्मरण करें और दिन श्रेष्ठ कर्म करें तो श्रेष्ठ कर्म करने के संस्कार पक्के हो सकते हैं। भूतकाल पापों के दुखों पर वे भरी पड़ कर हमें सदाकाल के लिए ख़ुशी प्रदान कर सकते हैं।
योग अग्नि पापों को भस्म करना
द्वापर युग से ज्यों ही पाप कर्म शुरू हुए,मानव ने पापों को नष्ट करने की कुछ न कुछ विधियाँ रची। इन विधियोँ में मुख्य रूप से नदी में स्नान, तीर्थ यात्राएं, हवन, यज्ञ,सत्संग,दान-पुण्य,प्रायश्चित आदि हैं। परन्तु बुद्धि कहती है कि ऐसा करने से कुछ श्रेष्ठ कर्म जमा तो हो सकते हैं लेकिन पूर्व के पाप नष्ट कैसे हो सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं की यह तो विश्वास की बात हैं परन्तु विश्वास भी ज्ञान पर आधारित होना चाहिए। जैसे गंगा के पानी से शरीर तो साफ़ हो सकता है परन्तु मन व आत्मा का मैल नहीं धूल सकता। भक्ति मार्ग में पापों को भस्म करने के लिए योग-अग्नि का ज़िक्र भी है परन्तु आत्मा-परमात्मा का स्पष्ट परिचय न होने के कारण प्रभावी योग-अग्नि प्रज्वलित नहीं हो पाती। शिव परमात्मा ने प्रजापिता ब्रह्मा के मुख से स्वयं अपना व आत्मा तथा इन दोनों के परस्पर सम्बन्ध का स्पष्ट परिचय देकर राजयोग रुपी अग्नि से भूतकाल के पापों को भस्म करने की अचूक विधि सिखाई है। निरंतर ज्वालामुखी योग के अभ्यास,तपस्या,साधना आदि से पाप शीघ्र भस्म हो जाते हैं। इससे आत्मा का सुख,शांति,ख़ुशी,प्रेम आदि का पारा बढ़ता जाता है तथा आत्मा हल्की होती जाती है।
मैं और मेरे का यथार्थ ज्ञान
किसी सामान्य व्यक्ति से यदि पूछा जाए कि आप कौन हैं तो वह झट अपने शरीर तथा पद का नाम बताएगा। भुला बैठा है कि वह अजर,अमर,अविनाशी तथा चैतन्य आत्मा है जिसकी स्मृति मात्र से उसको ख़ुशी व सुख की महसूसता हो सकती है।
दूसरा,यदि पूछा जाये कि इस दुनिया में आपका कौन है? तो शरीर,शरीर के सम्बन्धी , धन-संपत्ति आदि ही याद आते हैं। ये सब अस्थाई है। ये सब मनुष्य के पास प्रकृति की अमानत के रूप में होते हैं। इस बात की निरंतर अनुभूति तथा स्मृति व्यक्ति के मोहजाल को काट कर ख़ुशी प्रदान कर सकती है। वस्तुतः उसका कुछ है तो वह है आत्मा के गुण और परमपिता परमात्मा शिव का प्यार। शिव पिता परमात्मा की याद से आत्मा में उन गुण और शक्तियों के संस्कार भर जाते हैं जो इस जन्म में ही नहीं बल्कि भविष्य के अनेक जन्मों तक साथ रहते हैं तथा बेहद का सुख, शांति, ख़ुशी आदि प्रदान करते रहते हैं। श्रीमद भगवदगीता में भी कहा गया है,"नष्टोमोहा स्मृतिर्लब्धा"। यदि आत्मा स्वयं के दिव्य ज्योति बिंदु स्वरुप में टिक कर इस स्मृति में स्थित रहे कि "मेरा तो शिवबाबा एक दूसरा न कोई " तो इस तप से उसके अनेक जन्मों के पाप भस्म होकर वह जन्म-जन्मांतर के लिए खुशियों के झूले में झूल सकती है।
लौकिक जज और पारलौकिक जज
जो व्यक्ति शिव पिता परमात्मा को अपने इस जीवन के पाप कर्मों का सच्चा ब्यौरा देकर उनसे क्षमा मांगता है तथा भविष्य में ऐसे कर्म पुनः न करने की प्रतिज्ञा करता है तो उसकी आधी सज़ा माफ़ हो सकती है। कैसे? जैसे लौकिक में जज बाप अपने अपराधी पुत्र द्वारा, अपनी गलती स्वीकारने,हृदय से क्षमा मांगने, अपने आचरण में सुधार करने तथा फिर से ऐसी गलती न करने की बार-बार प्रतिज्ञा करने पर उसे कम से कम सज़ा दे सकता है। क्योंकि,सज़ा का उद्देश्य अपराधी को सुधारना ही होता है तो पारलौकिक जज परमात्मा पिता आधी सज़ा क्यों नहीं माफ़ कर सकता? बाकी बची हुई आधी सज़ा को उपरोक्त योगाग्नि से भस्म किया जा सकता है। इससे आत्मा पापों के दुखों से मुक्त सकती है।
बना-बनाया खेल
अनेक बार ऐसा महसूस होता है कि हम करना कुछ चाहते हैं परन्तु करते कुछ और हैं। मान लीजिये, संपत्ति आदि के झगडे में पुत्र अपने भाई या पिता की हत्या कर देता है। फिर जेल जाकर कह उठता है कि वह ऐसा करना तो नहीं चाहता था परन्तु पता नहीं कैसे हो गया। इसी प्रकार, देश-प्रेम से भरपूर शिक्षित युवा फ़ौज में भर्ती होकर देश-सेवा करना चाहता है परन्तु उसका कद कुछ कम होने के कारण वह भर्ती नहीं हो पाता अर्थात वह मनचाहा कार्य नहीं कर पाता। इन सब घटनाओं से समझ आता है की इस सृष्टि रुपी नाटक में हम सभी पूर्व निर्धारित पार्ट बजाने के लिए बाध्य हैं। यह पार्ट भूतकाल में किये गए कर्मों व संस्कारों अनुसार ही मिलता है। संत कबीर जी ने कहा है, पहले बनी प्रालब्ध,फिर मिला शरीर अर्थात पिछले जन्म के कर्मों के फल(प्रालब्ध) अनुसार ही शरीर (रोगी-निरोगी) मिलता है। इसलिए हमें वर्तमान में जो भी पार्ट मिला है,न्यायोचित यही होगा कि हम उसको अपने ही भूतकाल के कर्मों का फल समझ कर ख़ुशी-ख़ुशी पूर्ण करें, न कि दुखी होकर। मानव सृष्टि रुपी नाटक का ज्ञान समझ में आने से ख़ुशी बढ़ जाती है तथा दुखों की महसूसता कम हो जाती है।
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